Judicial Activism in Hindi
Hello दोस्तों ज्ञानोदय में आपका एक बार फिर स्वागत है । आज हम आपके लिए लेकर आए हैं, एक नया Topic जिसका नाम है, न्यायिक सक्रियता यानी Judicial Activism.
पहले हम बात करते हैं, न्यायपालिका की शक्तियों के बारे में । जिसको न्यायिक सक्रियता के नाम से जाना जाता है । लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका होनी चाहिए । भारत की न्यायिक व्यवस्था की शुरुआत अंग्रेजी शासनकाल के दौरान ही हो गई थी । हालांकि स्वतंत्रता के बाद एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की शुरुआत की गई थी । लेकिन आज भी हमारी न्याय व्यवस्था का स्वरूप औपनिवेशिक बना हुआ है । अंग्रेजी का प्रभाव देखा जा सकता है । न्यायालयों के अंदर न्याय प्रक्रिया बहुत महंगी है और आज भी सस्ता और शीघ्र न्याय उपलब्ध नहीं है ।
न्यायालय द्वारा मूलभूत सुविधा
सर्वोच्च न्यायालय ने इन सभी समस्याओं की तरफ ध्यान दिया है और माना है कि न्याय व्यवस्था को आम जनता का जीवन सुधारने के लिए कुछ मूलभूत कदम उठाने चाहिए । इस तरीके से हमारी न्याय की व्यवस्था का स्वरूप बदल रहा है और न्यायपालिका रचनात्मक हो गई है । इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी शक्तियों को बढ़ाया है और कुछ ठोस कदम भी उठाए हैं ।
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सबसे महत्वपूर्ण कदम उठाया है, जनहित याचिकाओं को मान्यता दिया जाना । जनहित याचिकाओं का मतलब होता है । कोई भी व्यक्ति किसी भी ऐसे व्यक्ति या ऐसे समूह की तरफ से अर्ज़ी दे सकता है या मुकदमा लड़ सकता है । जिसको कानूनी अधिकारों से वंचित किया गया है । न्यायालय में लिखित शिकायत करने पर न्यायालय संज्ञान ले सकता है ।
न्यायिक सक्रियता का आरंभ
भारत में न्यायिक सक्रियता की शुरुआत बिहार के भागलपुर जेल से हुई थी । बिहार के भागल जेल के पुलिस आयोग के एक सदस्य के संधि में सर्वोच्च न्यायालय को एक लेख लिखा । जिसमें बताया गया था कि बिहार की जेल में बहुत सारे विचारधीन बिना कार्यवाही के जेल में पड़े हैं । इनके पास ना तो जमानत देने वाला कोई था और ना ही कोई वकील था । इस आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने ये फैसला सुनाया की अगर किसी व्यक्ति को या अगर किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाने में 18 महीने से ज्यादा का समय लग रहा है । तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा । इस तरीके से भारत के अंदर जनहित याचिका की शुरुआत हुई ।
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अनुच्छेद 21 के संदर्भ में
अनुच्छेद 21 के अंदर कहा गया है । विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति से ना तो उसका जीवन छीना जा सकता है और ना ही उसकी स्वतंत्रता की जा सकती है । आमतौर पर यह माना जाता है कि सरकार कानून बनाकर किसी इंसान की जिंदगी छीन सकती है या किसी की स्वतंत्रता भी छीन सकती है ।
मेनका गांधी के मामले में । सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सरकार द्वारा बनाया गया कानून विवेकपूर्ण और न्याय संगत होने चाहिए । यानी अब न्यायालय इस बात की भी जांच करता है कि सरकार के द्वारा बनाए गए कानून विवेक संगत हैं । न्यायपूर्ण है या नहीं । अगर न्यायालय पाता है कि कानून न्याय पूरक नहीं है, तो उस कानून को अवैध घोषित कर देता है ।
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सर्वोच्च न्यायालय का काम है, नागरिकों की प्रतिष्ठा को बनाए रखना और लोगों को न्याय प्रदान करना । इसलिए न्यायालय ने असमर्थ, पिछड़े हुए लोगों पर ज्यादा ध्यान दिया है । जैसे एक बार चांदनी चौक के अंदर पुलिस ने एक फेरी लगाने वाले व्यक्ति को पकड़कर जेल के अंदर डाल दिया । न्यायालय के सामने जब उस व्यक्ति को पेश किया गया तो पुलिस ने यह दलील दी कि यह इंसान सामान बेचकर या अपनी रेहड़ी लगाकर रास्ते को जाम कर रहा है । और वह जाम रोज कर रहा था । जिससे बहुत सारे लोगों को, आने जाने वालों को परेशानी हो रही थी । अब न्यायालय ने उस व्यक्ति से पूछा । उस व्यक्ति ने जवाब दिया कि साहब मैं तो एक गरीब इंसान हूं और मेरे पास कोई रोजगार नहीं है । इसलिए मैं यह सामान बेचकर अपना घर चलाता हूं । फिर न्यायालय ने पुलिस को फटकार लगाई और कहा कि इस तरह के लोगों को गिरफ्तार करके न्यायालय में ना लाया जाए । उसका समय बर्बाद ना किया जाए । यानी फेरी लगाना व्यक्ति का मौलिक अधिकार है । हां फुटपाथ लगा लेना या पटरी पर स्थाई रूप से कब्जा कर लेना, इसमें शामिल नहीं है ।
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न्यायपालिका, कार्यपालिका के ऊपर नियंत्रण रखती है । कार्यपालिका अपनी स्वयं विवेक का इस्तेमाल करके वह निर्देशित सिद्धांतों के अनुसार कार्य करती है ।
विमल रेडी विवाद के अंदर सर्वोच्च न्यायालय ने यही बताया था कि कार्यपालिका को अपनी शक्ति का इस्तेमाल निर्देशक सिद्धांतों के अनुसार करना चाहिए । न्यायालय कानूनों की व्याख्या करता है । सर्वोच्च न्यायालय की मान्यता यह है कि न्यायालय का काम कानून बनाना नहीं है । लेकिन न्यायालय कानून की व्याख्या परिस्थितियों के अनुसार कर सकता है और परिस्थितियों को अनुकूल रखता है ।
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इस तरीके से न्यायालय एक तरफ विधि का शासन स्थापित करता है । दूसरी तरफ लोगों को न्याय प्रदान करता है । न्यायिक सक्रियता बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है । भारत में भ्रष्टाचार, निजी स्वार्थ की राजनीति की वजह से लोगों का भरोसा लोकतंत्र से खत्म होता जा रहा है ।
न्यायपालिका द्वारा विधि के शासन की स्थापना
न्यायपालिका ने लोगों का भरोसा लोकतंत्र पर दोबारा लाने के लिए और विधि का शासन स्थापित करने के लिए अपने कार्य क्षेत्र को बढ़ाया है । ऐसी चार परिस्थितियां होती हैं, जब न्यायालय अपने कार्य क्षेत्र से बाहर जाकर विधायिका और कार्यपालिका के कार्य में दखल दे सकता है ।
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1 पहली परिस्थिति जब सरकार अपने कर्तव्यों का पालन ना करें और नागरिक अपने हितों की रक्षा के लिए न्यायालय के अंदर याचिका देने लगे तो इससे जनहित याचिकाओं को बढ़ावा मिलता है । सकरार किसी काम को नहीं करती जबकि वह काम सरकार की जिम्मेदारी है । तो फिर न्यायालय उस काम को करता है और सरकार से वह काम करवाता है ।
2 दूसरा है, जब सरकार इतनी कमजोर हो जाए कि किसी वर्ग के नाराज होने के डर से कोई फैसला ना ले सके । भारत के अंदर लोकतंत्र है और सरकार जनता की परवाह करती है । सरकार को वोटों से मतलब है । कभी-कभी जनता के नाराज़ होने के चक्कर में सरकार फैसला नहीं ले पाती । क्योंकि जनता नाराज हो जाएगी और सरकार की कुर्सी को खतरा पैदा हो जाएगा । तो वह काम न्यायालय को करना पड़ता है । और
3 तीसरा, जब सरकार खुद सक्षम होते हुए भी न्यायालय के माध्यम का दुरुपयोग करना चाहे । सरकार वह काम कर सकती है । लेकिन सरकार जानबूझकर उस काम को नहीं करती है । सरकार सोचती है कि अगर हम यह काम करेंगे तो बदनाम हो जाएंगे । इसलिए सरकार न्यायालय से इस काम को करवाती है । कहने का मतलब यह है कि काम सरकार का होता है । नाम न्यायालय का होता है । यानी सरकार न्यायालय के कंधे पर बंदूक रखकर चलाती है । इस तरीके से न्यायिक सक्रियता को बढ़ावा मिलता है । और
4 चौथा, जब न्यायालय खुद अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ावा देना चाहता है । जब न्यायालय अपने कार्य क्षेत्र से बाहर जाकर विधायिका और कार्यपालिका के कार्य में दखल दे सकता है ।
तो भारत में इस तरीके की 4 परिस्थितियां हैं, जब न्यायिक सक्रियता को बढ़ावा मिलता है ।
न्यायिक सक्रियता तेजी से बढ़ती जा रही है और न्यायिक सक्रियता के आधार पर न्यायालय के अंदर बहुत सारी जनहित याचिकाएं भी डाली जाती हैं । जिसके आधार पर न्यायालय ने बहुत सारे अभूतपूर्व फैसले लिए हैं । बहुत पुराने मुकदमों को तेजी से निपटाया है । जैसे हम हवाला कांड के बारे में जान सकते हैं । 1993 में हवाला कांड को लेकर न्यायालय में शिकायत की गई थी कि सीबीआई इस घोटाले की बहुत धीमी गति से जांच कर रही है । तब सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई के निदेशक को न्यायालय बुलाया और निजी तौर पर जवाबदेह बनाया और जांच के बारे में समय-समय पर सूचित करने के लिए कहा ।
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इसी तरीके से एडवोकेट एसएस के बारे में जनहित याचिका के जरिए न्यायालय शिकायत में दिल्ली में सरकारी बंगलों को जो कि किराए पर दिये जाते थे । उसमें भारी भ्रष्टाचार होता था, घोटाला होता था । सर्वोच्च न्यायालय ने देखा और सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत सारे बड़े बड़े मंत्रियों को, लगभग 72 अतिविशिष्ट लोगों को सरकारी बंगला खाली करने का आदेश दिया ।
दिसंबर 2007 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अधीनस्थ न्यायालय अपनी लक्ष्मण रेखा पार ना करें । कानून ना बनाएं उनका पालन करवाएं । न्यायालय के न्यायाधीशों को विनम्रता से काम लेना चाहिए नाकि राजाओं की तरह व्यवहार करना चाहिए । अब सर्वोच्च न्यायालय जनहित याचिकाओं को समय की बर्बादी भी कहने लगा है । क्योंकि बहुत सारी ऐसी याचिकाएं आने लगी हैं । जिनकी सुनवाई तक बेकार है । मिसाल के लिए दिल्ली के अंदर नर्सरी स्कूलों में दाखिले कैसे किए जाएं ? अब यह देखना न्यायालय का काम तो नहीं है । यह देखना तो स्कूलों का काम है । इसी तरीके से एक व्यक्ति ने अपनी जनहित याचिका के अंदर यह कहा कि जो इंग्लिश के अखबार आते हैं । उनमें अश्लील फोटो होते हैं । इसलिए उन्हें घर पर पढ़ने में दिक्कत होती है । तो न्यायालय ने फैसला सुनाया और कहा कि अगर आपको उस अखबार से दिक्कत है तो आप कोई दूसरा अखबार लें ।
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सवाल है न्यायिक सक्रियता व्यवस्था से बहुत सारे अच्छे अच्छे-अच्छे काम भी हुए हैं । जैसे न्यायालय ने जो दिल्ली के अंदर प्रदूषण को कम करने के लिए फैसला लिया । इसी तरीके से न्यायालय ने बहुत सारे उम्मीदवारों को उनकी शपथ पत्र भरवाए ताकि नागरिकों को पता लगे कि जिस उम्मीदवार को हम चुन रहे हैं । वह कितना योग्य है ।
तो न्यायिक सक्रियता तेजी से बढ़ती जा रही है । इससे बहुत सारे सकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं ।
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तब तक के लिए धन्यवाद !!