Theory of Separation of Power
Hello दोस्तो ज्ञानउदय में आपका एक बार फिर स्वागत है, और आज हम बात करते हैं राजनीति विज्ञान में शक्ति के प्रथकीकरण सिद्धांत के बारे में । इस Post में हम जानेंगे इस सिद्धांत का उद्देश्य, महत्व, मॉन्टेस्क्यु के विचार और आलोचना के बारे में । तो जानते हैं आसान भाषा में ।
शक्ति प्रथिकरण सिद्धांत
आइए सबसे पहले हम बात करते हैं, शक्ति के पृथकीकरण सिद्धांत के बारे में । जैसा कि हम सभी जानते हैं, किसी भी सरकार के तीन महत्वपूर्ण अंग होते हैं । जिन्हें व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के नाम से जाना जाता है ।
व्यवस्थापिका का कार्य है, कानूनों का निर्माण करना ।
कार्यपालिका का काम है, कानूनों को लागू करना और शासन करना । और
न्यायपालिका का कार्य है, कानूनों की व्याख्या करना । इसके साथ साथ कानूनों का उल्लंघन करने वालों के लिए, उनके दंड की व्यवस्था करना ।
सरकार के इन तीनों अंगों की शक्तियों को एक दूसरे से अलग रखने को ही शक्ति पृथक्करण कहा जाता है ।
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शक्ति पृथक्करण का उद्देश्य
शक्ति के पृथकीकरण का उद्देश्य इस प्रकार से सरकार के तीनों अंगों व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की शक्तियों को एक दूसरे से अलग रखना जिससे व्यक्तियों की स्वतंत्रता तथा उनके अधिकारों की रक्षा हो सके तथा सरकार द्वारा शासन सत्ता निरंकुश ना हो ।
शक्ति पृथकीकरण पर विचारकों के विचार
आइए कुछ महत्वपूर्ण विचारकों के बारे में शक्ति पृथक्करण पर विचार जान लेते हैं । मॉन्टेस्क्यु शक्ति प्रथिकरण सिद्धांत के अधिकारिक विचारक माने जाते हैं । इनको शक्ति प्रथिकरण का व्याख्याता भी माना जाता हैं । मॉन्टेस्क्यु ने इन विचारों को अपनी पुस्तक Sprit of Laws में बताया है । मॉन्टेस्क्यु के अनुसार
“सरकार की अगर यह तीनों शक्तियां व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका एक ही रूप में हो जाएं तो शासन व्यवस्था में निरंकुशता का भय उत्पन्न हो जाता है ।”
इसीलिए इन तीनों शक्तियों को एक दूसरे से अलग अलग होना चाहिए तथा एक दूसरे शक्ति का किसी के भी क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए ।
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मॉन्टेस्क्यु अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जब व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की शक्तियां एक व्यक्ति में केंद्रित हो जाएं तो, स्वतंत्र नहीं रह सकती । क्योंकि हमेशा यह भय बना रहता है कि राजा या सीनेट अत्याचार पूर्ण कानून बनाएंगे और उन्हें अत्याचारी के रूप में लागू भी करेंगे ।
तो सबसे पहली बात यह है शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के न रहने पर यह संभावना हो जाती है कि व्यक्तियों की स्वतंत्रता नहीं रह जाएगी । इसी तरह से न्यायिक शक्ति व्यवस्थापिका और कार्यपालिका को अलग नहीं की जा सकता है । तो वहां भी स्वतंत्रता संभव नहीं है ।
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दूसरा विचार वह कहते हैं कि यदि न्यायपालिका यानी कि न्यायिक शक्ति व्यवस्थापिका और कार्यपालिका से अलग नहीं किया जाएगा । तो वहां भी स्वतंत्रता संभव नहीं हो सकती है । एक प्रमुख विचारक है मेडिसन । जिनको अमेरिकी संविधान निर्माण में भी महत्वपूर्ण माना जाता है । मेडिसन कहते हैं कि
“व्यक्ति की स्वतंत्रता व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के अलग अलग यानी प्रथक रहने में ही है । व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संबंधित संपूर्ण शक्तियों का एक ही हाथ में एकत्र हो जाना । चाहे वह एक व्यक्ति हो या चाहे कुछ लोग हो या बहुत लोगों चाहे वह वंशानुगत हो, स्वतंत्र नियुक्त हो या निर्वाचित हो । अत्याचारी शासन की उपयुक्त परिभाषा है ।”
मेडिसन भी शक्ति पृथक्करण के पक्ष में हैं । वह कहते हैं,
“सरकार की तीनों शक्तियां जब एक ही हाथ में केंद्रित हो जाती हैं, तो उसे अत्याचारी शासन की परिभाषा ही कहा जाएगा ।”
शक्ति पृथकीकरण का महत्व
आइये अब देख लेते हैं, शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के महत्व को । इस सिद्धांत के महत्व को देखेंगे तो मॉन्टेस्क्यु द्वारा जो प्रतिपादित शक्तियों का पृथक्करण सिद्धांत है, व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो यह सिद्धांत बहुत अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ क्योंकि इसका प्रभाव दुनिया के कई देशों के संविधान ऊपर पड़ा है । कई देशों के संविधान ने अपनाया । उदाहरण के लिए अमेरिका । इस सिद्धांत से प्रभावित संसार का सबसे महत्वपूर्ण देश अमेरिका में एक तरह से देखा जाए तो घोषित रूप से शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को मान्यता दी गई है ।
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दूसरा कार्य कुशलता में वृद्धि किस प्रकार से होगी क्योंकि इससे कार्य विभाजन का लाभ मिलेगा और तीनों अंग अपना अपना कार्य अलग-अलग तरीके से करते हैं, तो उनकी कार्यकुशलता बढ़ जाती है । वह अपने अपने अंगों के कार्यों पर ध्यान देंगे और दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे । उनकी कार्यकुशलता स्वयं बढ़ जाएगी ।
तीसरा महत्व कार्यभार का कम होना । तो जब कार्य विभाजन होगा, तीनों शक्तियों में तीनों के अपने अलग-अलग कार्य निर्धारित होंगे । इस तरह इनका कार्यभार भी कम हो जाता है और उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि होती है । यदि तीनों अधिकार एक ही व्यक्ति अथवा समूह को दे दिए जाएंगे तो, इसका सबसे बड़ा प्रभाव होता है कि कार्य भार अधिक हो जाता है, अव्यवस्था उत्पन्न होती है, इसके साथ कार्यकुशलता में कमी तो आती ही है ।
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उसके अलावा निरंकुशता का भय नहीं रहता । इस सिद्धांत का सबसे बड़ा महत्व यह है कि तीनों अंगों के कार्यों को एक दूसरे से पृथक कर देने पर निरंकुशता या अत्याचारी शासन की कोई जगह नहीं रह जाती है और इस सिद्धांत का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण महत्व है कि शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत का पालन करने से नागरिकों के स्वतंत्रता की भी रक्षा होती है । शक्तियों को एक ही हाथ में केंद्रित होने से कोई स्वतंत्र नहीं रह जाता है । तो हमने देखा कि शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का महत्व क्या है, महत्व इसका इस प्रकार है ।
शक्ति पृथक्करण की आलोचना
ऐसा नहीं है कि शक्ति पृथक्करण सिद्धांत में पूरी तरह से इसमें गुण ही गुण हो और सभी अच्छाइयां हो । इसकी आलोचना भी कई आधारों पर की जाती है । हालांकि देखने पर शक्ति पृथक्करण सिद्धांत बहुत सही लगता है और तर्कसंगत भी । लेकिन वास्तव में देखा जाए तो इस सिद्धांत में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां है । जिसके कारण यह सिद्धांत की कड़ी आलोचना की जाती है । आलोचना के प्रमुख तथ्यों पर हम नज़र डाल लेते हैं ।
पहला है, शक्तियों का पूर्णतया पृथक्करण संभव नहीं तो सही बात है । सरकार के तीनों अंग एक दूसरे से संबंधित होते हैं । जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग अपना अपना कार्य करते हैं और वे एक दूसरे पर आधारित होते हैं और आश्रित होते हैं । उसी प्रकार सरकार के तीनों अंग परस्पर संबंधित है, तीनों की शक्तियों को एक दूसरे से पूरी तरह से अलग नहीं किया जा सकता है । तो यह सबसे बड़ी आलोचना यह है कि सरकार के तीनों अंग एक दूसरे पर आश्रित हैं और उनकी शक्तियों को पूरी तरह से अलग नहीं किया जा सकता है ।
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दूसरी आलोचना यह गतिरोध सरकार के तीनों अंगों को एक दूसरे से अलग कर दिया जाएगा तो उनके कार्यों में गतिरोध उत्पन्न हो सकता है । शक्ति पृथक्करण के परिणाम स्वरुप शासन का संचालन भी रुक सकता है और कई प्रकार के संघर्ष उत्पन्न हो जाते हैं । फाइनल जो कि प्रमुख विचारक हैं । वह कहते हैं कि
“शक्तियों का पृथक्करण शासन व्यवस्था में शिथिलता और मतभेद उत्पन्न करता है ।”
तीसरी आलोचना इस आधार पर की जाती है यह एक व्यावहारिक सिद्धांत है क्योंकि अमेरिका में जहां शक्ति पृथक्करण का दावा किया जाता है, पूरी तरह से शक्तियों का पृथक्करण वहां भी नहीं है । क्योंकि व्यवहार में तीनों अंग एक दूसरे पर निर्भर ही हैं । तथा
चौथा आधार है, आलोचना का वह यह है कि तीन निरंकुश शक्तियों के होने का भय हो सकता है, तो शक्तियों के पृथक्करण के फल स्वरुप सरकार की निरंकुशता रोकना आवश्यक समझा जाता है । लेकिन यह सिद्धांत कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका जैसी तीन निरंकुश शक्तियां उत्पन्न कर देगा । ऐसे में व्यक्तियों के स्वतंत्रता की रक्षा कहां हो सकती है । यह भी एक आलोचना का आधार है क्योंकि तीनों शक्तियां अगर अलग हो जाए तो ऐसे में भी व्यक्तियों के अधिकार और स्वतंत्रता की रक्षा संभव नहीं है ।
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इसके अलावा जो 5 वां आधार है आलोचना का वह यह है कि स्वतंत्रता की रक्षा नहीं । तो शक्तियों के पृथक्करण के संबंध में मॉन्टेस्क्यु का मानना था कि इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा होगी । लेकिन यह तर्क पूरी तरह से गलत है क्योंकि शक्ति पृथक्करण में नागरिकों की स्वतंत्रता की कोई गारंटी नहीं है । स्वतंत्रता मनुष्य के स्वभाव पर निर्भर करती है ।
लेकिन छठा जो आलोचना का आधार है वह है संसदीय शासन के प्रतिकूल । तो वर्तमान में जो संसदीय शासन प्रणाली होती है और उसके जो कार्य करने का ढंग होता है, यह सिद्धांत उसके सर्वथा प्रतिकूल है । संसदीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद के सदस्य व्यवस्थापिका यानी कार्यपालिका जो होती है, वहां पर व्यवस्थापिका के बहुमत दल से निर्धारित होती है और उसी में से चुनी जाती है और जो मंत्रिपरिषद और प्रधानमंत्री हैं, वह संसद के प्रति अपने कार्यों के लिए उत्तरदाई होते हैं । ऐसी व्यवस्था में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को एक दूसरे से अलग किया जाना संभव नहीं है । इससे शक्ति पृथक्करण सिद्धांत संसदीय शासन के प्रतिकूल हो जाता है ।
इसके अलावा जो एक सबसे बड़ा आधार है, आलोचना का । कोई एक ही लोकतांत्रिक आपत्ति और नेतृत्व का विभाजन लोकतांत्रिक आपत्ति किस आधार पर की शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत वर्तमान में जो लोकतांत्रिक प्रणाली है, उसके सिद्धांतों के प्रतिकूल है । लोकतंत्र में क्या होता है ? लोकतंत्र में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि व्यवस्थापिका के सदस्य होते हैं । अन्य अंगों को व्यवस्थापिका से बिल्कुल अलग कर देने पर व्यवस्थापिका की शक्ति सीमित यादव बाधित हो जाएगी । व्यवस्थापिका की शक्ति के सीमित होने का अर्थ है, जनता के प्रतिनिधियों की शक्ति का सीमित होना । ऐसे में यह प्रणाली पूरी तरह से सफल नहीं हो पाएगी ।
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इसके अलावा नेतृत्व का विभाजन जो एक सबसे बड़ा तर्क यह है कि लोकतंत्र में समस्या के समाधान के लिए कुशल और सक्षम नेतृत्व की आवश्यकता होती है । कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की शक्तियों को अलग कर देने पर नेतृत्व / होगा और / नेतृत्व की शक्ति भी कम हो जाएगी । तो यथा शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की व्यवहारिकता और व्यावहारिकता पर आलोचना के प्रमुख बिंदु क्या क्या है ? इसको हमने देख लिया । अब जानते हैं अमेरिका में शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के संबंध में अमेरिकी संविधान निर्माताओं की अमेरिकी संविधान में प्रावधान हो ।
संविधान निर्माताओं में मेडिसन भी प्रमुख थे । वे हमेशा यह कहते थे कि हम निरंतर मॉन्टेस्क्यु के अदृश्य छाया से प्रेरित होते आ रहे हैं । तो एक प्रकार से देखा जाए तो अमेरिका में जो शासन या संविधान का निर्माण किया गया है, वह मॉन्टेस्क्यु से काफी हद तक प्रभावित था और वहां पर शासन की शक्तियों को यह शासन के अंगों को पृथक बैठक करके व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया । अमेरिकी संविधान में तीनों अंग सरकार के हैं, उनको एक दूसरे से पृथक रखने के लिए अमेरिकी संविधान में कौन कौन सी व्यवस्था की गई है, यह देख लेते हैं । तो पहली व्यवस्था अमेरिकी संविधान में जो शक्ति पृथक्करण का है उसके लिए पहली व्यवस्था यह है कि जो राष्ट्रपति होता है वह जनता द्वारा निर्वाचित होता है और कांग्रेसी स्वतंत्र होता है ।
अमेरिका में जो शक्ति पृथक्करण पर आधारित उसमें पहला यह है कि जो अमेरिका का राष्ट्रपति आने की प्रेसिडेंट होता है वह जनता द्वारा निर्वाचित होता है और कांग्रेस से स्वतंत्र होता है । उसको महाभियोग लगाकर ही कांग्रेस हटा सकती है । लेकिन यह प्रक्रिया बहुत कठोर है और व्यवहार में जल्दी लागू नहीं हो पाता है । इसके अलावा कांग्रेस के दोनों सदन सभी राष्ट्रपति के शक्ति से मुक्त होते हैं । राष्ट्रपति उनके कार्यकाल के पूर्व भंग नहीं कर सकता है ।
दूसरा जो है शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के संबंध में अमेरिकी संविधान में क्या व्यवस्था है । वह यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सीनेट की सहमत सेतु की जाती है । लेकिन एक बार नियुक्त होने के बाद जो जज है या न्यायाधीश है, उनको बिना महाभियोग द्वारा नहीं हटाया जा सकता है । यह महाभियोग प्रक्रिया अत्यंत कठिन है । देखा जाए तो अमेरिकी संविधान में शासन के तीनों अंगों को एक दूसरे से अलग रखा गया है और तीनों को शक्तियों को एक दूसरे से इस प्रकार से अलग किया गया है । पृथक किया गया है कि एक दूसरे पर कोई भी गतिरोध की स्थिति उत्पन्न न होने पाए ।
तो दोस्तो ये था शक्ति प्रथिकरण का सिद्धांत । (Theory of Separation of Power) इस Post में हमने जाना । इसके महत्व, उद्देश्य, मॉन्टेस्क्यु के विचार और शक्ति प्रथिकरण के सिद्धांत की आलोचना के बारे में । अगर Post अच्छी लगी हो तो अपने दोस्तो के साथ ज़रूर Share करें । तब तक के लिए धन्यवाद !!