यथार्थवादी उपागम
Hello दोस्तो, ज्ञानोदय में आपका स्वागत है । आज हम बात करते हैं । यथार्थवाद के बारे में यानी की Realism Approach के बारे में ।
यथार्थवाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों को समझने का सबसे महत्वपूर्ण उपागम (दृष्टिकोण) है । यथार्थवाद किन्ही राष्ट्रों के बीच संबंध कैसे हैं ? और किस तरह के हैं ? इस पर जोर देता है, और इसकी व्याख्या करता है |
हर व्यक्ति अपने हित के लिए शक्ति चाहता है और दूसरे लोगों पर विजयी होना चाहता है । जिससे समाज में एक संघर्ष पैदा होता है । इसी तरह की स्थिति अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी देखी जा सकती है । राष्ट्र भी अपने हित के लिए अपनी शक्ति को बढ़ाने की कोशिश करता है । जिससे दुनिया में भी एक संघर्ष चलता रहता है । प्राचीन काल से ही यथार्थवाद के ऊपर बहुत सारे विचारको ने अपने विचार दिए हैं । जैसे कौटिल्य, संजू, थूसी डाइट, मैकयवली और थॉमस हॉब्स । सबसे पहले हम जानते हैं । यथार्थवाद का अर्थ ।
यथार्थवाद का अर्थ (Meaning of Realism)
यथार्थवाद शक्ति के हिसाब से अंतरराष्ट्रीय संबंधों को समझने की कोशिश करता है । यथार्थवादियों के अनुसार दुनिया एक खतरनाक और असुरक्षित जगह है । जहां पर हिंसा जरूर होती है । यथार्थवादी शक्ति के संबंध में, अंतरराष्ट्रीय संबंधों की व्याख्या करते हैं । यथार्थवाद अपने नाम के मुताबिक जैसा कि इसके समर्थकों का कहना है । उनकी नजर यथार्थ पर यानी की सच्चाई पर या वास्तविकता पर और दुनिया को उसी रूप में देखते हैं । जैसी वह दुनिया है । हालांकि इस विचार की कितनी ही बार आलोचना की गई है । लेकिन हकीकत यह है कि विश्व राजनीति शक्ति पाने के लिए संघर्ष है । यथार्थवाद के ऊपर बहुत सारे विचारको ने अपने विचार दिए हैं । जो कि निम्नलिखित हैं ।
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यथार्थवाद के प्रमुख समर्थक
1 कौटिल्य
2 सन-जू
3 थूसी डाइट
4 मैक्यावली
5 थॉमस हॉब्स
1 सबसे पहले बात करते हम कौटिल्य की । कौटिल्य प्राचीन भारत के एक महान विचारक थे । जिन्होंने यथार्थवाद पर अपने विचार दिए । कौटिल्य ने शक्ति को तीन तत्वों में बांटा । ज्ञान, सैन्य बल और शोध । ज्ञान के जरिए शक्ति हासिल की जा सकती है । सैन्य बल, शक्ति का व्यवहारिक रूप है । और शौर्य के जरिए ही शक्ति का इस्तेमाल किया जा सकता है । इसलिए कौटिल्य ने इन तीनों तत्वों को शक्ति के तत्वों के अंदर बांट दिया है ।
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2 दूसरा है सन-जू । चीन में आज से लगभग 2000 साल पहले सन-जू नाम के एक चिंतक हुआ करते थे । उनका यह कहना था कि ऐसे शासक जिन्हें अपने आसपास हथियारों और हिंसक पड़ोसियों का सामना पड़ता है । उनके लिए नैतिक मूल्यों का कोई महत्व नहीं होता । ऐसे में युद्ध ही शक्ति का एकमात्र या अंतिम सहारा रह जाता है ।
3 और तीसरे विचारक थे, थूसी डाइट । ग्रीक विद्वान थूसी डाइट ने यथार्थवाद का समर्थन किया । उनका यह मानना था कि कोई भी निर्णय लेने से पहले, निर्णय लेने वाले को उसके अच्छे और बुरे परिणामों के बारे में बहुत सावधानी से सोच लेना चाहिए । क्योंकि हमारा निर्णय हमारा भविष्य होता है । थूसी डाइट का यह भी कहना था कि हर किसी को शक्ति बढ़ाते रहना चाहिए । क्योंकि शक्तिशाली देश सब कुछ कर सकता है । जो करने की क्षमता उसके पास है । ठीक उसी तरीके से शक्ति हीन राज्य को वह स्वीकारना होता है जो शक्तिशाली देश चाहता है । अब थूसी डाइट ने शक्ति बढ़ाने का का समर्थन इसलिए किया था कि शक्ति के दम पर हम कुछ भी पा सकते हैं । और शक्तिहीन राज्य को सब कुछ मांगना पड़ता है । क्योंकि उसके पास शक्ति नहीं है । जिससे वह दूसरों की आज्ञा का पालन ना करें । यानी दूसरे की आज्ञा को कहने से इंकार कर सके ।
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4 और इसी तरीके से एक चौथे विचारक जिनका नाम है, मैक्यावली । मैक्यावली का यह कहना था कि शासकों को नैतिक और अनैतिक सभी तरीकों से अपनी शक्ति को बढ़ाना चाहिए । मैक्यावली ने बताया कि शासकों में शेर और लोमड़ी जैसे गुण होने चाहिए । यानी शेर जैसी शक्ति होनी चाहिए शासकों में । और लोमड़ी जैसी चालाकी होनी चाहिए । अगर शासक में शासक जैसे गुण हैं यानी शक्ति है, तो शक्ति के दम पर कमजोर देशों को हराया जा सकता है । जबकि लोमड़ी जैसे गुणों से यानी चालाकी से छल से, कपट से, शक्तिशाली राज्यों को भी बहुत आसानी से हराया जा सकता है । मैक्यावली का यह भी कहना था कि शासक का जो सबसे पहला कर्तव्य होता है । वह होता है राष्ट्रहित, राष्ट्रहित तभी हो सकता है । जब शासकों के अंदर शेर और लोमड़ी दोनों के गुण हो ।
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5 थॉमस हॉब्स इसी तरीके से यथार्थवाद के ऊपर थॉमस हॉब्स ने भी अपने विचार दिए थे । 17 वीं शताब्दी में इंग्लैंड के महान लेखक थॉमस हॉब्स ने यथार्थवाद पर अपने विचार दिए थे । हॉब्स का यह कहना था कि राज्य पहले रोज कंदमूल खाकर अपना गुजारा किया करते थे । उस वक्त समाज अव्यवस्थित और असभ्य था । उस वक्त तो लोगों ने निरंकुश राजतंत्र का समर्थन किया और हर व्यक्ति इस बात के लिए तैयार हुआ कि वह बिना किसी सवाल के बिना किसी प्रश्न के राजा के सभी आदेशों का पालन करेगा । ताकि एक सभ्य समाज की स्थापना की जा सके । इस तरीके से हॉब्स ने राज्य को असीमित शक्ति देने का समर्थन किया । ऐसे में राज्य को अधिकार मिल जाता है या शक्ति मिल जाती है कि वह लोगों से अपने आज्ञा का जबर्दस्ती पालन करवा सकें ।
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आदर्शवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया
बीसवीं शताब्दी में यथार्थवाद को आदर्शवाद के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में माना जाता है । आदर्शवादी एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं । जिसमें ना तो शक्ति की राजनीति हो । ना ही अनैतिकता हो और ना ही हिंसा के लिए कोई जगह हो । आदर्श आदर्शवाद के सबसे प्रमुख समर्थक अमेरिका के राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन थे । जिन्होंने विश्व में शांति बनाए रखने के लिए नैतिकता, अंतरराष्ट्रीय कानून और अंतरराष्ट्रीय समर्थकों पर बल दिया । इसलिए पहले विश्व युद्ध के बाद विल्सन के विचारों को ध्यान में रखते हुए दुनिया में शांति बनाए रखने के लिए राष्ट्र संघ लीग ऑफ नेशन बनाया गया । आदर्शवादी उपागम, पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बीच में लोकप्रिय रहा ।
हालांकि जब 1930 के दशक में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर के आने से सैनिक तानाशाहों का उदय हुआ । तो आदर्शवाद का सपना टूट कर बिखर गया । क्योंकि आदर्शवाद दुनिया में शांति की स्थापना नहीं कर सके और 1939 तक पूरी दुनिया में दूसरे विश्व युद्ध का सामना करना पड़ गया । इस तरीके से यथार्थवादीओं ने आदर्शवाद की कड़ी आलोचना की और निंदा की क्योंकि आदर्शवाद अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सके ।
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यथार्थवाद पर मार्गेन थायू के विचार
यथार्थवाद का सबसे अच्छे तरीके से जो विचार दिए हैं । वह दिए हैं, हंस जे मार्गेन थायू ने । तो मार्गेन थायू का जन्म 1904 में जर्मनी में हुआ लेकिन जब 1930 के दशक में जर्मनी में हिटलर के आने से नाजीवाद को अपनाया गया तो मार्गेन थायू जर्मनी से भागकर अमेरिका चला गया । वहां पर उसने एक अध्यापक और राजनीतिक चिंतक के रूप में अपनी पहचान बनाई । मार्गेन थायू उस समय का सबसे पहला विचारक था । जिसने यथार्थवाद को वैज्ञानिक रूप दिया । मार्गेन थायू का यह कहना था कि किसी भी देश के लिए राष्ट्रहित सर्वोच्च होता है । मार्गेन ने विल्सन के आदर्शवाद की आलोचना करते हुए कहा था कि राष्ट्रहित के लिए शक्ति पर बल देना चाहिए । नैतिकता और आदर्शवाद से कुछ नहीं हो सकता । अगर हमने हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाह पर काबू पाना है, या उसका मुकाबला करना हो तो । उनका मुकाबला नैतिकता, आदर्शवाद से नहीं किया जा सकता है । बल्कि शक्ति से ही ऐसे तानाशाह का मुकाबला किया जा सकता है ।
यथार्थवाद के 6 सिद्धान्त
1 राष्ट्रहित
2 पर्यावरण की भूमिका
3 मानव स्वभाव
4 दूरदर्शिता
5 राज्य एक कर्ता
6 राजनीति एक स्वायत्त विषय
1 तो पहले जानते हैं, यथार्थवाद का पहला सिद्धांत । यथार्थवाद का पहला सिद्धांत राष्ट्रहित । राष्ट्रहित यथार्थवाद का मूल तत्व है । मार्गेन ने राष्ट्र हित के लिए शक्ति का पर बल दिया क्योंकि सभी फैसले राष्ट्रहित के मुताबिक ही लिए जाते हैं ।
2 दूसरा सिद्धांत है, पर्यावरण । राष्ट्रहित समय के अनुसार बदलता रहता है और राष्ट्रपति के अनुसार ही नीतियां बनाई जाती हैं । और राष्ट्रहित पर्यावरण के हिसाब से तय किया जाता है । यानी जैसा माहौल होता है । वैसा ही राष्ट्र होगा ।
3 तीसरा सिद्धांत है, मानव का स्वभाव । राजनीति पर कानूनों का वर्चस्व होता है और कानूनों की जड़े मानव के स्वभाव के साथ जुड़ी हुई होती है । मानव का स्वभाव स्वार्थी और लोभी है । यानी जिस तरीका का मानव शासक बनेगा राजनीति बिल्कुल उसी तरीके से काम करेगी ।
4 चौथा सिद्धांत है, दूरदर्शिता । नेता अंतरराष्ट्रीय नैतिकता और कानूनों का फैसला अपने इच्छा के अनुसार करते हैं । इसलिए विश्व राजनीति के अंदर नैतिकता का कोई महत्व नहीं है । हर नेता अपने हिसाब से नैतिकता की व्याख्या कर सकता है । राजनीति के अंदर दूरदर्शिता महत्वपूर्ण है । नैतिकता के बारे में नहीं सोचना नहीं बल्कि दूर की सोच कर चलना चाहिए । अगर कोई फैसला हम लेते हैं, निर्णय लेते हैं तो आने वाले वक्त में इसका प्रभाव या परिणाम निकलेगा । यह दूरदर्शिता के हिसाब से तय किया जाता है ।
5 पांचवा सिद्धांत है, राज्य एक कर्ता । यथार्थवादी राज्य को एक ऐसे कर्ता या अभिनेता के रूप में देखते हैं । जो शक्ति के द्वारा अपने हितों की पूर्ति में लगा रहता है । जैसे एक एक्टर होता है, वह एक्टिंग करके अपने हितों को पूरा करता है । जैसे एक बिजनेसमैन होता है, वह बिज़नेस करके अपने हितों को पूरा करता है । इसी तरीके से यथार्थवाद हर राज्य को एक कर्ता या एक ऐसे अभिनेता के रूप में देखते हैं । जो शक्ति के जरिए अपने हितों की पूर्ति में लगा रहता है ।
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6 और छटा सिद्धांत है, राजनीति एक स्वयत विषय । यथार्थवादियों के हिसाब से राजनीति को एक स्वयत्त विषय समझना चाहिए । इस विषय के अंदर या इस राजनीति के अंदर, गैर राज्य, एनजीओ (NGO) की कोई भूमिका नहीं होती है ।
तो दोस्तों यह था, यथार्थवाद । अगर आपको यह Post अच्छी लगी तो अपने दोस्तो के साथ शेयर करें ।