महात्मा गांधी प्रमुख विचार, चिंतन एवं प्रासंगिकता
Hello दोस्तो ज्ञान उदय में आपका स्वागत है । आज हम बात करते हैं, गांधी जी के प्रमुख विचारों की । जैसा कि हम जानते है कि गांधी जी के विचार आज के इस युग मे भी प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं । गांधी जी ने पर्यावरण, मानव विकास और सामाजिक न्याय पर अपने महत्वपूर्ण विचार दिए हैं । आइये जानते हैं, वर्तमान समय में गांधी जी के विचार कितने प्रासंगिक हैं ।
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गांधी जी के विचार वर्तमान की समस्याओं को सुलझाने में आज भी उपयोगी है । इस संदर्भ में आवश्यकता यह है कि हम उनके विचारों को एक बार फिर उन्हें समझने का प्रयास करें । खास तौर पर, सामाजिक न्याय के विषय में उनकी धारणाओं का जानना बेहद जरूरी है ।
गांधी जी ने अन्याय और शोषण को समाप्त करने के लिए, शांति व अहिंसा का रास्ता चुना था । भारत की आजादी इस बात का एक बेहतर उदाहरण है, कि समाज या व्यवस्था को अहिंसात्मक आंदोलन से भी बदला जा सकता है । अहिंसा, व्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के प्रति गांधी जी की प्रतिबद्धता सावधानीपूर्वक व्यक्तिगत परीक्षण के बाद जीवन के सत्य से पैदा हुई थी । गांधी जी द्वारा बताए गए अहिंसा का वही मार्ग आज के हिंसापूर्वक समाज के लिए और भी अधिक उपयोगी प्रतीत होता है । सामाजिक न्याय और उसकी मांग संबंधी अवधारणा आधुनिक युग की देन है ।
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गांधी जी चाहते थे, समाज के हर वर्ग के लोगो की जन्मजात संभावनाओं को अभिव्यक्ति मिले । उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके । सामाजिक न्याय का उद्देश्य यही है किंतु समय के साथ-साथ तकनीकी विकास के कारण सांस्कृतिक और सामाजिक परिस्थितियों में भी बदलाव आते रहे हैं । मनुष्य की आवश्यकताएं भी उसी के अनुरूप बदलती रही हैं । इसलिए न्याय को समाज की स्थापना हेतु प्रत्येक पीढ़ी में बदलाव की मांग करती है । जिसके परिणाम स्वरूप कई बार मौजूदा व्यवस्था परिवर्तन का मी शक्तियों के खिलाफ खड़ी हो जाती है । अपने अपने को सही मानने की यही मतभेद उनके बीच हिंसा को उकसाता है । ऐसी संघर्षपूर्ण स्थितियों को संभाल कर शांति कायम रखना कोई आसान बात नहीं थी ।
सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई अहिंसा से लड़ी जाए, इसलिए गांधीजी मनुष्य जीवन में नैतिक गुणों के विकास को जरूरी समझते थे । उनका यह अटूट विश्वास था कि भारत के लोगों के लिए स्वतंत्र एवं उच्च जीवन निर्माण हेतु सामाजिक एवं नैतिक गुण ही आवश्यक ही नहीं बल्कि अपरिहार्य हैं । नैतिकता के आधार पर की गई लड़ाई में जीत अवश्य होगी । बापू का जीवन इस विश्वास पर आधारित रहा है ।
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पीड़ित और पिछड़े वर्ग के लोगों को सामाजिक न्याय उपलब्ध कराने की प्रक्रिया, आधुनिक राष्ट्र के प्रमुख कार्यों में से एक माना जाता है । औद्योगिक क्रांति के समय से सैनिकों के प्रति पूंजी पतियों के शोषण के विरोध स्वरूप इस अवधारणा का विकास हुआ पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में श्रमिकों की अवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से विश्व भर में आंदोलन छेड़ा गया सामाजिक न्याय की अवधारणा उसी पर आधारित है 19 वी सदी के प्रारंभ में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विश्व के विभिन्न प्रांतों में आवाज उठी और नए-नए स्वाधीन राष्ट्रों की स्थापना हुई तभी राष्ट्रीय व्यवस्था के तहत सामाजिक न्याय की प्रक्रिया को संवैधानिक प्रावधानों में शामिल किया गया स्वतंत्र भारत में भी विकास के प्रयास संबंधित सभी कार्यक्रम सामाजिक न्याय की धारणा से प्रेरित रहे हैं ताकि सभी बल वर्ण जाति एवं धर्म के लोग अपनी अपनी मानवीय स्थितियों में सुधार ला सकें ।
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गांधीजी मानव प्रेमी होने के साथ-साथ गहरे रूप में आध्यात्मिक और धार्मिक थे । वह परंपराओं में विश्वास करते थे । लेकिन उनके विचार अभिनव और क्रांतिकारी थे । उनका मानना था कि धार्मिक भावनाओं से संचालित व्यक्ति कभी किसी प्रकार का अन्याय सहन नहीं करता । जहां भी मानवता पर कोई अन्याय हो नैतिकता और धर्म का तकाजा यही है कि तुरंत उसको मिटाने का प्रयास किया जाए । सामाजिक भेदभाव और संकीर्णता को मिटाने की निरंतर कोशिश, अश्पृश्यता और जाति पाती के बैर को जड़ से मिटाने के लिए सामाजिक आंदोलन और भारतीय समाज को एक साथ जोड़ने की चेष्ठा, गांधी दर्शन की धुरी है । अहिंसा और सत्याग्रह उनकी नैतिकता की अवधारणा के दो मुख्य पहलू रहे हैं ।
असहयोग आंदोलन और
सामाजिक न्याय की लड़ाई का प्रमुख हथियार ।
हालांकि आजादी की लड़ाई में कई बार असहयोग आंदोलन में हिंसा उतर आने के कारण गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन रद्द किया गया, पर यह आंदोलन भारतवासियों को एकजुट करने में सफल रहा था ।
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गांधीजी का समग्र जीवन गरीबों और पीड़ितों को सामाजिक न्याय दिलाने के संघर्ष में बीता । दक्षिण अफ्रीका में जो लड़ाई अश्वेत नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रारंभ हुई, वह भारतवर्ष के स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि थी । दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधी जी को दो तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा ।
1 विदेशी शासकों के शिकंजे से देश को आजाद कराना और दूसरा
2 भारतीय समाज में पनपने वाली अंदरूनी बुराइयों को हटाना
भारत को अगर अंग्रेजी हुकूमत का सामना करना था तो यह जरूरी था कि मौजूदा भेदभाव समाज को बदल कर आपसी संबंधों को सुधारा जाए । सदियों से चली आ रही अन्याय की प्रथाओं को बदलना या मिटाना कोई आसान काम नहीं था । त्याग और बलिदान के लिए लोगों को अनुप्रेरित करने की गांधी जी की अद्भुत क्षमता और पिछड़े वर्गों के प्रति उनके प्रेम ने इस कठिन काम को आगे बढ़ाया । आज़ादी की उनकी लड़ाई अंग्रेज सरकार के विरुद्ध थी । साथ ही साथ, एक समतामूलक समाज की स्थापना के लिए भी ।
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इस उद्देश्य से समाज के उत्थान के लिए गांधीजी ने कुछ रचनात्मक कार्यक्रम शुरू किए । सांप्रदायिक एकता, अस्पृश्यता निवारण, मध्य निषेध, खादी प्रचार, ग्रामोद्योग सफाई, शिक्षा बुनियादी तालीम, हिंदी प्रचार और अन्य भारतीय भाषाओं का विकास, स्त्रियों की उन्नति, स्वास्थ्य, प्रौढ़ शिक्षा । इसी प्रकार देश हित के लिए आर्थिक समानता, कृषक संगठन, श्रमिक संगठन, विद्यार्थी संगठन और स्वतंत्रता तथा स्वराज के लिए निरंतर संघर्ष । स्वाधीनता के उपरांत स्वतंत्र भारत में, सभी को सम्मान के साथ जीने के अधिकार मिले – यह गांधीजी का सपना था । इस तरह से देखा जाए तो गांधी जी का दर्शन और सामाजिक न्याय इन दोनों में कोई अंतर नजर नहीं आता ।
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दुखद बात यह है कि आज भी इस देश में अनेक प्रांतों में धर्म और जात पात के नाम पर भेदभाव किया जाता है । आज भी एक ही धर्म होने के नाते विभिन्न जाति व समुदाय के लोग गांवों में अलग-अलग हिस्से में बसते हैं । अलग-अलग मंदिरों में जाते हैं । यहां तक कि स्कूलों में भी सारे बच्चे एक साथ बैठकर मिड डे मील का खाना तक नहीं खाते । जाति भेद की यह समस्या केवल हिंदुओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि मुस्लिम और सिख धर्म इससे अछूते नहीं हैं । अगर अलग-अलग जातियों के लड़के और लड़की एक दूसरे से शादी कर ले तो उनकी जान खतरे में पड़ जाती है ।
संविधान में देश के सभी वर्ग के लोगों की समानता निश्चित की गई है । लेकिन आम आदमी अपना सामाजिक जीवन में जाति विभेद कभी नहीं भूले ।
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देश में लागू आरक्षण और सकारात्मक विभेद की नीतियों से लाभ जरूर हुआ है, पर आजादी के इतने साल बाद इसी वजह से आज भी सरकारी तौर पर व्यक्ति की पहचान जाति के आधार पर ही होती है । अभी भी इस भेद को मिटाने का काम बाकी है । जब तक हम इन बुराइयों से आजाद नहीं होंगे, तब तक सही मायनों में एक स्वतंत्र और आधुनिक भारत का निर्माण संभव नहीं होगा ।
गांधीजी मार्क्सवादी चिंतक से बेहद प्रभावी प्रभावित थे । समाज की मार्क्सवादी धारणा उन्हें आकर्षित करती थी । राष्ट्रवादी चिंतकों के अनुसार साम्राज्यवादी शोषण के कारण अंग्रेजी शासन के दौरान भारत की आर्थिक स्थिति या दुर्दशा पूर्ण हो गई । जिससे उबरने का एकमात्र उपाय था, अंग्रेजी शासन से मुक्ति । जबकि मार्क्सवादी चिंतन के अनुसार इस दुर्दशा के मूल में भी पूंजीवादी शोषण है । जिससे समाज में आर्थिक असमानता और अन्याय पनपते हैं और वर्ग संघर्ष ही इससे निपटने का इकलौता रास्ता है । पूंजीवादी और मार्क्सवादी दोनों अर्थव्यवस्थाओं में मशीन निर्भर अति उत्पादन पर टिकी हुई हैं, जबकि पूंजीवादी व्यवस्था, अन्याय और हिंसा पूर्ण शोषण के बल पर चलती है । मार्क्सवाद इससे अद्भुत परिस्थितियों से मुक्ति पाने के लिए हिंसक उपाय अपनाने की बात करता है । इंसानों के मामले में पूंजीवाद और मार्क्सवाद में शायद ही कोई अंतर है ।
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किंतु गांधी जी के विचार कुछ अलग है, उनका मानना था कि भारत की आर्थिक दुर्दशा का कारण था, शहरी विकास के दौरान ग्राम निर्भर अर्थव्यवस्थाओं का विनाश । यह उनके लिए शहर द्वारा गांव का शोषण था । वह मानते थे कि भारत में ऐसी उत्पादन व्यवस्था की जरूरत है, जिसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम मिले । आत्मनिर्भर ग्रामीण, अर्थव्यवस्था का विकास हो । गांधीजी चाहते थे कि हर हाथ को काम मिले, बेकारी नहीं । आदमी के पास ऐसे औजार होने चाहिए जिस पर सही अर्थों में उसका नियंत्रण हो । यंत्र यदि व्यक्ति के काम को छीनकर पंगु बनाता है, तो वह गांधी को स्वीकार्य नहीं । चरखे का संदेश है, नियंत्रण योग्य मशीनें और गांव शासन ।
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गांधीजी के लिए चरखा श्रम की मर्यादा का प्रतीक था । वह मशीनी उत्पादन और औद्योगीकरण के विरोधी थे । इसके लिए प्राय उनकी आलोचना भी की जाती है । गांधीजी ने 1919 में रचित अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में आधुनिक सभ्यता को नकारा था । वस्तुतः आधुनिक सभ्यता के बारे में उनकी नकारात्मक भावना कभी नहीं बदली, लेकिन उस समय जबकि पिछले मुल्कों के अधिकतर देश शीघ्र औद्योगिक विकास के लिए प्रयासरत थे । गांधीजी द्वारा आधुनिक सभ्यता और आधुनिक तकनीकी विकास से विरोध को स्वाधीन भारत की विकास नीति का समर्थन नहीं मिला । भूमंडलीकरण के इस दौर में विश्व भर में बेकारी की समस्या प्रकट होती दिख रही है । चारों ओर आर्थिक असमानता लगातार बढ़ती जा रही है । आज हर किसी का मानना है कि प्रत्येक हाथ को काम सामाजिक न्याय की स्थापना के संदर्भ में प्राथमिक शर्त है ।
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वस्तुत गांधीजी अनियंत्रित विकास के विरोधी थे । गांधी सिद्धांत के अनुसार रहन-सहन में सादगी और कम खर्चे की बात आज के जमाने में कोई मानने को तैयार नहीं, लेकिन जब भी सभी मनुष्य के लिए अच्छा रहन सहन नीतियों का एक आवश्यक लक्ष्य हो और साधन सीमित हो तो सादगी अनिवार्य लगती है । मानव अपनी प्रगति और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कृतिका अत्यधिक शोषण, दोहन और पर्यावरण की तबाही में लगा है ।
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यदि हम पिछले 100 वर्षों के विकास और विनाश का अध्ययन करें, तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सचमुच यंत्रों ने इस सभ्यता को विनाश के मुहाने पर ला खड़ा कर दिया है । अगर आगामी समय में समाज के हर एक वर्ग को विकास का सबल चाहिए तो सबके लिए अपनी आवश्यकताएं सीमित करना बहुत जरूरी है । पृथ्वी के पास हमारी आवश्यकताओं के लिए ही पर्याप्त संपदा है, ना कि हमारे लोभ के लिए । गांधी जी द्वारा यही कहीं गई, यह बात पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित करती है और हमें विकास के वैकल्पिक पद के बारे में सोचने के लिए मजबूर करती हैं ।
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