Liberal theory of State
Hello दोस्तों ज्ञानउदय में आपका एक बार फिर स्वागत है और आज हम बात करते हैं, राजनीति विज्ञान में राज्य के उदारवादी सिद्धांत के बारे में । इस Post में हम जानेंगे इसकी मान्यताएं और मूल्यांकन के बारे में । उदारवादी सिद्धांत का प्रचलन 17वीं और 18 वीं शताब्दी की देन है । वर्तमान में उदारवादी सिद्धांत केवल राज्य के नकारात्मक कार्य की बात ना करके, राज्य द्वारा कुछ सकारात्मक कार्य किए जाने पर भी जोर देते हैं । तो जानते हैं, आसान भाषा में ।
राजनीति विज्ञान की शाखा राजनीतिक चिंतन में राज्य की प्रकृति, कार्य तथा व्यक्ति व राज्य के संबंधों के विषय में अनेक विचार और सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं । यह सभी धारणा व्यक्ति और राज्य के संबंधों को विविध दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करती हैं ।
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राज्य के उदारवादी सिद्धांत की मान्यताएं
राज्य व्यक्तियों के लिए साधन मात्र है, साध्य नहीं । राज्य का उदारवादी परीपेक्ष्य राज्य के यांत्रिक सिद्धांत (Mechanical Theory) पर आधारित है । इसके अनुसार राज्य का निर्माण सभी व्यक्तियों ने मिल जुलकर सब के व्यक्तिगत लाभ के उद्देश्य से किया है । इस दृष्टि से राज्य एक कृतिम और मानव निर्मित संस्था है । राज्य एक ऐसी संस्था है, जो मनुष्य के कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मनुष्य द्वारा ही निर्मित की गई है । अतः राज्य का अस्तित्व मनुष्य के लिए है । मनुष्य का अस्तित्व राज्य के लिए नहीं । इस दृष्टि से राज्य केवल एक साधन मात्र है, व्यक्ति उसका साध्य नहीं है ।
अगर इस दृष्टिकोण के अनुसार यह राज्य को अच्छा नही मानता बल्कि राज्य को एक आवश्यक बुराई मानता है, क्योंकि व्यक्ति की स्वतंत्रता उदारवाद का मूल सिद्धांत है और इसके साथ ही उदारवाद के एक नये दृष्टिकोण से अहस्तक्षेप की नीति के रूप में आया है । इसका प्रयोग मुख्यता आर्थिक क्षेत्र में किया गया है । इसके अंतर्गत व्यक्ति की आर्थिक स्वतंत्रता, व्यापार की स्वतंत्रता, मुक्त व्यापार, मुक्त उद्यम, निजी संपत्ति के अर्जन तथा व्यक्ति को अपनी मेहनत द्वारा अधिकतम लाभ उठाए जाने की स्वतंत्रता की मांग की गई है । क्योंकि इसी के द्वारा ही व्यक्ति तथा राज्य का अधिकतम विकास हो सकता है । जो कि व्यक्ति तथा राज्य के हित में आवश्यक है ।
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इसी दिशा में प्रसिद्ध विचारक बेंथम ने जॉन लॉक के प्राकृतिक अधिकारों के काल्पनिक सिद्धांत का खंडन किया है तथा उपयोगिता के आधार पर उदारवादी सिद्धांत का समर्थन किया है । उसके अनुसार सार्वजनिक नीति का केवल एक ही आधार होना चाहिए वह है:-
“अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख ।”
साथ ही साथ बेंथम ने यह भी स्पष्ट किया है कि समुदाय का हित अलग-अलग व्यक्तियों के हितों का योग होता है तथा विधि निर्माण का एक ही प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए । जिसके द्वारा अधिकतम लोगों का हित हो, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्यों तथा अपने हित का सर्वोत्तम निर्णायक है तथा सरकार को ऐसे कानूनों का निर्माण करना चाहिए, जो लोगों के स्वतंत्र गतिविधि के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करें । क्योंकि सामान्य हित को ध्यान में रखकर व्यक्तियों पर उचित प्रतिबंध तथा अपराधियों को दंड देने का कार्य सरकार का है । परंतु कानून का पालन करने वाले लोगों की स्वतंत्रत गतिविधियों में राज्य का कम से कम हस्तक्षेप होना चाहिए ।
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उदारवादी व्यक्तिवादी सिद्धांत के प्रबल समर्थकों में हरबर्ट स्पेंसर प्रमुख हैं । उनके अनुसार
“राज्य का कार्य अत्यंत न्यून (कम से कम) होना चाहिए ।”
यह कार्य केवल निम्नलिखित हो सकते हैं :- जैसे
1) बाहर के शत्रुओं से व्यक्तियों की रक्षा करना ।
2) घरेलू शत्रुओं से व्यक्तियों की रक्षा करना तथा
3) कानूनी तौर पर किए गए समझौतों को लागू करना ।
स्पेंसर के विचारों का सारांश यह निकलता है कि राज्य को केवल निषेधात्मक कार्यों को करना चाहिए । शिक्षा, स्वास्थ्य निर्धन वर्ग की सहायता आदि कार्य राज्य के लिए उचित नहीं क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति और स्वाभाविक व्यवस्था में राज्य द्वारा हस्तक्षेप किया जाता है ।
राज्य के उदारवादी सिद्धांत का मूल्यांकन
आइये अब जानते हैं, राज्य के उदारवादी सिद्धांत के मूल्यांकन के बारे में । 18 वीं शताब्दी में तथा 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में राज्य के उदारवादी व्यक्तिवादी सिद्धांत को मान्यता मिली । परंतु यह एकांगी सिद्धांत का रूप धारण कर लेता है, क्योंकि यह सिद्धांत व्यक्ति के एक पहलू पर ज्यादा जोर देकर दूसरे सिद्धांत को बिल्कुल भुला देता है । यह पूंजीवादी व्यवस्था के एक निर्धारित चरण की देन है । राज्य के हस्तक्षेप का विरोध तत्कालीन परिस्थितियों में आवश्यक था, परंतु उसे पूंजीवाद के वर्तमान चरण के विकास में युक्ति संगत नहीं माना जा सकता है ।
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आज के उदारवादी भी यह नहीं स्वीकार करते कि राज्य के कार्य क्षेत्र को सुरक्षा की व्यवस्था तथा अपराधियों के दमन तक ही सीमित रखा जाए । आज सरकारी क्षेत्र में हस्तक्षेप के बिना अधिकांश लोगों के लिए अपना पूर्ण विकास करना संभव नहीं है ।
स्पष्ट है कि उदारवादियों के मत में व्यक्ति, स्वार्थी, सुखापेक्षी तथा अपने हित के संबंध में विवेकपूर्ण निर्णय लेने में समर्थ है । परंतु यह मानव स्वभाव का एकांगी चित्रण है तथा सभी व्यक्तियों में यह समझा यह क्षमता भी नहीं पाई जाती कि वह अपने हितों की पूर्ति हेतु विवेकपूर्ण निर्णय सकें । ऐसे में राज्य का कर्तव्य और दायित्व अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है ।
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एक बात और जो ध्यान देने योग्य है, वह यह है कि उदारवादी मानते हैं कि यदि व्यक्ति को अपने हितों की पूर्ति करने की आजादी हो तो सभी लोग सुखी और समृद्ध हो जाएंगे । परंतु यह तभी सार्थक होगा । जब व्यक्तियों के पारस्परिक हितों में कोई विरोध ना हो । इन विसंगतियों और विरोधियों को राज्य के कार्य क्षेत्र में विस्तार के द्वारा ही दूर किया जा सकता है ।
आज भी कुछ उदारवादी मांग और पूर्ति तथा मुक्त प्रतियोगिता के सिद्धांतों में विश्वास करते हैं । परंतु आज यह स्पष्ट हो चुका है कि यह नियम केवल पूंजीवाद के प्रारंभिक चरण में उपयुक्त थे । आज पूंजीवादी व्यवस्था में एकाधिकार, व्यवसायिक संगठन, गठबंधन तथा संकेन्द्रण प्रभावी हैं और राज्य भी आर्थिक व्यवस्था में काफी हस्तक्षेप कर रहा है ।
आज के समय में बात की जाए तो वर्तमान में राज्य का स्वरूप, एक कल्याणकारी राज्य के रूप में परिवर्तित हो गया है । जिसमें राज्य व्यक्तियों के कल्याण तथा हित को ध्यान में रखकर हस्तक्षेप भी कर रहा है ।
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वर्तमान में बाजार का स्वरूप बहुत विस्तृत हो गया है । बाजार की नियमों की घोर विषमता ने यह सिद्ध कर दिया है कि मुक्त बाजार व्यवस्था में एक व्यक्ति की आर्थिक स्वतंत्रता दूसरे के उत्पीड़न का कारण बन जाती है । इसलिए सर्वहित के लिए राज्य द्वारा बाजार का नियमन अनिवार्य हो जाता है । यही कारण है कि आज के समय में एडम स्मिथ तथा हरबर्ट स्पेंसर की नीतियों को अनैतिक तथा समाज विरोधी मानकर उनकी आलोचना की जाती है ।
तो दोस्तों यह था राज्य का उदारवादी सिद्धांत उसका मूल्यांकन और मान्यताओं के बारे में । अगर आपको यह Post अच्छी लगे तो अपने दोस्तों के साथ जरूर Share करें । तब तक के लिए धन्यवाद !!
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