Social Justice theory by B.R. Ambedkar
Hello दोस्तों ज्ञान उदय में आपका स्वागत है । राजनीति विज्ञान में आज हम जानेंगे डॉ. बी. आर. अंबेडकर की सामाजिक न्याय की अवधारणा के बारे में । सामाजिक न्याय की अवधारणा एक बहुत ही व्यापक शब्द है । इसमें एक व्यक्ति के नागरिक का अधिकार तो है ही साथ ही सामाजिक भारत के परिपेक्ष में जाति और अल्पसंख्यक समानता के अर्थ भी निहित है । ये निर्धनता साक्षरता, छुआछूत, स्त्री, पुरुष के हर पहलुओं और उसके प्रतिमानों की ओर इशारा करता है । तो जानते हैं आसान शब्दों में ।
सामाजिक न्याय अवधारणा का अर्थ
सामाजिक न्याय की अवधारणा का अभिप्राय है कि नागरिक व नागरिक के बीच सामाजिक स्थिति में कोई भेद न हो । सभी को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों । विकास के मौके सभी पिछड़े व उच्च को उनकी आबादी के अनुसार मुहैया हो ताकि सामाजिक विकास का संतुलन बनाया जा सके । (Political Science in Hindi)
सामाजिक न्याय का अंतिम लक्ष्य यह भी है कि समाज का कमजोर वर्ग जो अपना पालन करने के लिए भी योग्य नहीं है, उनका विकास में भागीदारी सुनिश्चित करना जैसे विकलांग, अनाथ बच्चे, दलित, अल्पसंख्यक, गरीब लोग, महिलाएं अपने आपको असुरक्षित महसूस न करे । संसार की सभी आधुनिक न्याय प्रणाली प्राकृतिक न्याय की कसौटी पर खरा उतरने की चेष्टा करती है । अंतिम लक्ष्य होता है कि समाज के सबसे कमजोर तबके का हित सुरक्षित हो और उनके प्रति अन्याय न हो ।
यदि वर्तमान में भारतीय न्याय प्रणाली पर गौर करें और देखें तो यह कई विभागों में बांटी गयी है जैसे फौजदारी, दीवानी, कुटुम्ब, उपभोक्ता आदि । लेकिन इन सभी का किसी न किसी रूप में सामाजिक न्याय से एक जुड़ाव होता है ।
अवधारणा के मुख्य आधार स्तंभ
आइए अब जानते हैं सामाजिक न्याय की अवधारणा के मुख्य अस्था आधारस्तंभ के बारे में ।
1) जाति में ऊंच नीच को मिटाना ।
2) धार्मिक, ऊंच नीच की मान्यता को मिटाना,
3) लैंगिक भेदभाव को खत्म करना और
4) क्षेत्रीयता की भेदभाव को खत्म करना ।
परंपरागत सामाजिक न्याय
डॉक्टर अंबेडकर के सामाजिक न्याय के सिद्धांत को समझने से पहले परंपरागत सामाजिक न्याय को जानना जरूरी है । भारत की सामाजिक न्याय प्रणाली में मनुस्मृति के नियम कठोरता से लागू होते हैं । आज भी खाप पंचायतों द्वारा दिए जाने वाले निर्णयों का आधार मनुस्मृति ही है । खाप पंचायत ही क्यों ? समस्त जाति पंचायतें अपने सामाजिक फैसले जाने अनजाने मनु के नियमों का ही पालन करते देखी जाती है । प्रश्न यह है कि ऐसे फरमान का आइडिया इन्हें कहाँ से मिलता है ? दरअसल ये आइडिया इन्हें मनुस्मृति से ही मिलता है, जो भारतीय जनमानस में समाया हुआ है । वास्तव में भारत में परंपरागत सामाजिक न्याय प्रणाली निम्न तीन बिंदुओं पर आधारित है।
1) अंधविश्वास,
2) जाति भेद, जाति, श्रेष्ठता एवं निष्ठा जिसमें शामिल है और
3) लैंगिक भेद, जिसमें महिलाओं को मानवीय अधिकार से बेदखल किया जाता है ।
इस प्रणाली पर विश्वास या श्रद्धा का मुख्य आधार धार्मिक ग्रंथ है, जो ऐसे विश्वास की पुष्टि करते हैं । इन ग्रंथों पर प्रश्न उठें इसलिए उसे ईश्वर द्वारा लिखित कहा गया है । ऐसा करने का एकमात्र लक्ष्य ही था कि किसी खास जाति विशेष, लिंग विशेष को बिना मेहनत सुख सुविधा मुहैया कराया जा सके । गौरतलब है कि ऐसा विश्व के अन्य समुदायों में भी होता था । ये ग्रंथ ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ एवं अन्य को मुक्त गुलाम बनाने की ओर प्रेरित करते हैं । गौरतलब है कि भारत में जातीय श्रेष्ठता का आधार जन्म है, न कि कर्म ।
किसी भी सूत्र को संपत्ति का संग्रह नहीं करना चाहिए, चाहे वह इसके लिए कितना भी योग्य या समर्थक क्यों न हो, क्योंकि जो शुद्ध धन का संग्रह कर लेता है, वह ब्राह्मणों को कष्ट देता है । ऐसा मनुस्मृति में कहा गया है कि उनके अध्ययन अध्यापन, यज्ञ करने, दूसरों से यज्ञ कराने, दान लेने में हमें दंड देने का आदेश दिया गया है । लोगों की रक्षा करने, दान देने, यज्ञ करने, पढ़ने एवं वासना वही वस्तुओं से उदासीन रहने का आदेश क्षत्रीयों को दिया ।
मवेशी पालन, दान देने, यज्ञ कराने, पढ़ाने, व्यापार करने धन उधार देने तथा खेती का काम करने की जिम्मेदारी व्यवसायों को दी गई । भगवान ने शुद्र को एक कार्य दिया है की इन पूर्व के सभी तीनों वर्गों की बिना किसी भेदभाव या दुर्भावना के सेवाभाव करना । भारत में आजादी मिलने के दौरान मुख्य अतिथि दो आधुनिक सामाजिक न्याय की अवधारणाएं उभर कर सामने आई, जिसमें एक थी कि गांधीवादी सामाजिक न्याय की अवधारणा और दूसरी अंबेडकरवादी सामाजिक न्याय की अवधारणा ।
गाँधीवाद की सामाजिक न्याय की अवधारणा इस प्रकार है कि गाँधी जी अपने आपको प्रगतिशील एवं आधुनिक मानते थे । वे आधुनिक न्याय प्रणाली को तो मानते थे लेकिन जाति एवं धार्मिक उच्च नीच को भी मान्यता देते थे । वे ये तो मानते थे कि सभी जातियों को आपस में मिलने बैठने का अधिकार होना चाहिए । उनके बीच मेलमिलाप होना चाहिए, छुआछूत नहीं होना चाहिए, लेकिन जाति आधारित कार्य नहीं त्याग करने चाहिए ।
इस प्रकार वे पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं । एक खास वर्ग के नेता गाँधी के इस सिद्धांत को मानते हैं । अब इस सिद्धांत को दक्षिणपंथी विचारधारा के नाम से भी जाना जाता है, जो दूसरी सामाजिक न्याय की अवधारणा रही । वो अंबेडकरवादी सामाजिक न्याय की अवधारणा रही ।
अंबेडकर का सामाजिक न्याय का सिद्धांत
प्राकृतिक न्याय की अवधारणा की ज्यादातर नजदीक है । अंबेडकर गांधीवादी सिद्धांत को एक छलावा कहते हैं । वे मानते हैं कि जिस सामाजिक न्याय के सिद्धांत में जातिगत, ऊँच नीच, धार्मिक कट्टरता, लिंग भेद, पूर्वजन्म की कल्पना को मान्यता दी जाती है व सामाजिक न्याय तो हो ही नहीं सकता वे इसे ब्राह्मणवादी न्याय का सिद्धांत कहते हैं, क्योंकि इस सिद्धांत में किसी जाति विशेष, लिंग विशेष का हित सुरक्षित करने का प्रयास किया जाता है । इसीलिए डॉ. अंबेडकर जिस सामाजिक न्याय की अवधारणा का प्रतिपादन करते है । वे रंगभेद, नस्लभेद, लिंग भेद और क्षेत्रीयता के भेद से मुक्त है ।
इस अवधारणा में समाज के कमजोर वर्ग के साथ न केवल न्याय हो बल्कि उनके अधिकार और रूप सुरक्षित हो, ऐसी मान्यता मानी जाती है । सामाजिक निर्माण में या संविधान के निर्माण में उनके इस सिद्धांत की भूमिका स्पष्ट देखी जा सकती है । डॉ. अंबेडकर का सामाजिक न्याय सिद्धांत निम्न सामाजिक बाधाओं पर काम करता है ।
1) सामाजिक बहिष्कार
2) पुरुष सत्ता का प्रतिकार
3) जाति आधारित काम करने की बात है । और
4) भूमि या संपत्तियों का असमान वितरण और
5) महिलाओं को पिता एवं पति की संपत्ति में अधिकार ।
भारतीय संविधान इस मामले में सर्वोच्च और उत्कृष्ट है । इसमें सामाजिक न्याय की पूर्ति के लिए इन बाधाओं को दूर करने का प्रयास किया गया है । सामाजिक न्याय पाने की दिशा में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया सहित तमाम केंद्रों के प्रयास कहीं न कहीं गलत कार्यान्वयन और असंतुलन के कारण फलीभूत नहीं हो पा रहे हैं । जरूरत और समय की मांग है कि उचित और संतुलित नीतियों व्यवहारों को लागू किया जाए जिससे कि सामाजिक न्याय को प्रगति का हिस्सा बनाया जा सके ।
जैसा कि अरस्तू का भी मानना है कि व्यक्ति समाज का सदस्य तो हो सकता है, लेकिन नागरिक वह तभी कहलाएगा जब वह राज्य की राजनीति में सक्रिय रूप से योगदान करता है ।
तो दोस्तो सामाजिक न्याय की अवधारणा हमने देखा है, डॉ. अंबेडकर की सामाजिक न्याय की अवधारणा उसकी तुलना हमने गांधीवादी सामाजिक न्याय की अवधारणा से तुलना की । अगर Post अच्छी लगी तो अपने दोस्तों के साथ ज़रूर Share करें । तब तक के लिए धन्यवाद !!