Aspects of Justice
Hello दोस्तों ज्ञानउदय में आपका स्वागत है और आज हम बात करते हैं, राजनीति विज्ञान में न्याय की संकल्पना (Aspects of Justice) के बारे में । इस Post में हम जानेंगे न्याय के बारे में, उसकी संकल्पना, विकास और विशेषताओं के बारे में । और साथ ही साथ हम जानेंगे तात्विक न्याय के बारे में तो चलिए शुरू करते हैं आसान भाषा में ।
न्याय की संकल्पना का अर्थ
सबसे पहले हम बात करते हैं, न्याय के बारे में । न्याय किसी भी राज्य के विकास और उसकी सभ्यता का जरूरी अंग माना जाता है । न्याय की संकल्पना प्राचीन काल से ही राजनीतिक चिंतन का महत्वपूर्ण विषय रहा है । हर राज्य के लिए न्याय की उचित व्यवस्था करना एक अनिवार्य कार्य है । एक समुचित न्याय व्यवस्था पर ही कानून का अस्तित्व निर्भर करता है । कानून के द्वारा ही राज्य में शांति व्यवस्था तथा स्थायित्व बना रह सकता है । न्याय मानव व्यवहार से संबंधित एक शाश्वत मापदंड है तथा यह मानव मूल्यों पर आधारित एक विश्वव्यापी अवधारणा भी मानी जाती है ।
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न्याय की संकल्पना का विकास
आइए अब न्याय की संकल्पना के विकास के बारे में जान लेते हैं । इसका विकास सदियों पूर्व प्राचीन काल से प्रारंभ माना जाता है । यूनानी विचारक प्लेटो ने अपनी पुस्तक Republic में न्याय की विस्तृत अवधारणा को प्रस्तुत किया है । एक अच्छी न्याय पूर्ण व्यवस्था के लिए प्लेटो ने यह स्वीकार किया है कि मानवीय आत्मा में तीन तत्व विद्यमान होते हैं ।
1) विवेक (Wisdom)
2) साहस (Spirit) तथा
3) तृष्णा (Appetite)
यह तीनों को जब मानव मस्तिष्क में उचित अनुपात में विद्यमान रहते हैं तभी कोई व्यक्ति न्याय का पालन कर सकता है । इसी आधार पर प्लेटो ने राज्य में 3 वर्गों का भी वर्णन किया है ।
शासक वर्ग:- जिसे विवेक की प्रधानता वाला वर्ग कहते हैं ।
सैनिक वर्ग:- जिसे साहस की प्रधानता वाला वर्ग कहा जाता है । तथा
उत्पादक वर्ग:- जिस वर्ग में तृष्णा की प्रधानता होती है ।
इसी प्रकार से जब यह तीनों वर्ग निष्ठा पूर्वक अपने कार्यों को करेंगे तथा अन्य लोगों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे तो ऐसी व्यवस्था न्यायपूर्ण मानी जाती है ।
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प्लेटो के अनुसार
“न्याय मानव आत्मा की उचित व्यवस्था तथा मानव स्वभाव की प्राकृतिक मांग अपने निश्चित स्थान पर अपने कार्यों को करना तथा दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप ना करना ही न्याय है ।”
इस प्रकार अपने कर्तव्य का पालन ही मनुष्य का धर्म है और यही न्याय है ।
क्योंकि प्लेटो के न्याय संबंधी विचार आधुनिक न्याय संबंधी विचारों से अलग हैं । प्लेटो ने न्याय को कर्तव्य भावना पर आधारित नैतिक स्वरूप की बात की है, परंतु वर्तमान में न्याय का मूल आधार कानून है और यह अधिकारों पर आधारित है ।
इसके अलावा यूनान के महान विचारक और दार्शनिक अरस्तु ने भी न्याय के संबंध में अपने विचार देते हुए पूरी तरह से अलग दृष्टिकोण अपनाया है । अरस्तु के अनुसार
“कानून ही न्याय का आधार है तथा कानूनों का पालन करना न्याय है ।”
इसके साथ ही नागरिकों के बीच न्याय का वितरण, उनकी योग्यता तथा गुणों के आधार पर किया जाना चाहिए । अरस्तु के अनुसार न्याय की अवहेलना क्रांति को जन्म देती है । उचित न्याय के अभाव में अस्थायित्व तथा अव्यवस्था उत्पन्न होती है ।
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अगर बात की जाए वर्तमान समय की तो आज के समय में भी न्याय की अनेक धाराएं प्रस्तुत की गई हैं । इसी तरह डेविड ह्यूम के अनुसार-
“न्याय का अर्थ न्याय का पालन मात्र है ।”
इसके अलावा बहुत सारे उपयोगितावाद के समर्थक जैसे जेरेमी बेंथम ने माना कि
“सार्वजनिक वस्तुओं तथा सेवाओं का वितरण उपयोगिता के आधार पर होना चाहिए । न्याय तब होगा जब अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख हो ।”
परंतु न्याय के उपयोगितावादी विचारको के इस विचार को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह अल्पसंख्यक वर्ग को उतना महत्व नहीं देता है ।
वर्तमान में न्याय के केवल उसी संकल्पना को स्वीकार किया जा सकता है, जिसका निर्माण जीवन के सामाजिक राजनीतिक तथा आर्थिक यथार्थ को सामने रखकर किया गया हो ।
न्याय के विविध आयाम
आइए अब जानते हैं, न्याय के अलग-अलग आयामों के बारे में ।
i) कानूनी औपचारिक और प्राकृतिक न्याय
न्याय की वर्तमान धारणा कानून पर आधारित मानी जाती है तथा न्याय की अभिव्यक्ति कानून के द्वारा होती है । जब दो पक्षों के परस्पर विरोधी दावों का फैसला करने तथा व्यक्तित्व के दायित्व या अधिकार निर्धारित करने के लिए प्रचलित कानून के अनुसार किया जाता है, तो उसे कानूनी न्याय कहते हैं । कानूनी न्याय में कानून को ही सबसे बड़ा प्रमाण मानकर उसे निष्पक्ष भाव से लागू किया जाता है । इसलिए इसे औपचारिक न्याय भी कहा जाता है ।
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प्राकृतिक न्याय प्राकृतिक नियमों पर आधारित है । जब कानून अस्पष्ट तथा मौन हो और कानूनों के आधार पर न्याय की प्राप्ति संभव ना हो तो, वहां प्राकृतिक न्याय का सहारा लिया जाता है । यह मानव की तर्क बुद्धि, विवेक पर आधारित सार्वभौमिक नियम है ।
ii) सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय
सामाजिक न्याय का अर्थ है कि समाज के विभिन्न व्यक्तियों तथा विभिन्न वर्गों को अपने विकास के लिए समान अवसर दिए जाएं । जाति, धर्म, वर्ण के आधार पर उच्चतम या निम्नतम के आधार पर व्यक्तियों में किसी प्रकार का कोई भेदभाव न किया जाए । स्त्री, पुरुष में किसी प्रकार की असमानता को नकारा जाए तथा किसी वर्ग द्वारा अन्य वर्ग की अवहेलना बुराई या शोषण न किया जाए ।
आर्थिक न्याय का तात्पर्य है कि सभी व्यक्तियों के आर्थिक हितों की रक्षा तथा उनके न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति समान कार्य के लिए समान वेतन मिले । सभी व्यक्तियों को अपनी योग्यता तथा परीक्षण के आधार पर उचित लाभ मिले तथा संपन्न वर्ग द्वारा दुर्बल वर्ग का शोषण ना हो ।
राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि सार्वजनिक नीति निर्धारण में सभी को प्रत्यक्ष भागीदारी का अवसर मिले । सार्वजनिक पद तथा सत्ता प्राप्त करने का मार्ग सभी के लिए खुला हो तथा सार्वजनिक शक्तियों का प्रयोग सभी के हितों को ध्यान में रखकर किया जाए तथा जाति, जन्म, लिंग, वर्ण के आधार पर उनके मध्य किसी प्रकार का कोई भेदभाव ना किया जाए ।
इस प्रकार इन तीनों प्रकारों से स्पष्ट होता है कि राजनीतिक न्याय स्वतंत्रता के आदर्श को प्रमुखता देता है । आर्थिक न्याय समानता के आदर्श को तथा सामाजिक न्याय बंधुत्व के आदर्श को बढ़ावा देता है और इन तीनों को मिलाकर ही सामाजिक जीवन में न्याय की व्यापक आधारों की सृष्टि की जा सकती है ।
iii) प्रक्रियात्मक न्याय
प्रक्रियात्मक न्याय सामाजिक जीवन में न्याय प्रदान करने की विधि को दर्शाता है । अर्थात प्रक्रियात्मक न्याय यह मांग करता है कि न्याय की प्रक्रिया उचित होनी चाहिए । फिर उसका जो भी परिणाम हो, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए । अर्थात इसके समर्थकों का मानना है कि मूल्यवान वस्तुओं, सेवाओं, लाभों इत्यादि के आवंटन की प्रक्रिया या विधि न्याय पूर्ण होनी चाहिए । फिर किसे क्या मिलता है, यह विवाद का विषय नहीं रहना चाहिए ।
न्याय की संकल्पना की विशेषताएं
आइए अब जानते हैं कि न्याय की संकल्पना की विशेषताओं के बारे में ।
1) प्रक्रियात्मक न्याय की धारणा उदारवाद के साथ जुड़ी हुई है ।
2) इसके अनुसार न्याय का कार्य केवल व्यक्ति या समूह के बीच केवल संबंधों को नियमित करना है । सभी व्यक्तियों की स्वतंत्रता और समानता के आधार पर नियम निर्धारित हो तथा कोई छल कपट या धोखे से किसी व्यक्ति को हानि ना पहुंचा सके ।
3) प्रक्रियात्मक न्याय बाजार व्यवस्था को मानव व्यवहार के नियमों का प्रमाण मानता है ।
4) प्रक्रियात्मक न्याय का सिद्धांत जाति, धर्म, क्षेत्र, त्वचा, रंग, भाषा, संस्कृति के आधार पर मनुष्य मनुष्य के बीच किसी प्रकार के भेदभाव का विरोध करता है । यह समाज में सभी मनुष्यों की समान गरिमा को स्वीकार करने वाला एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है ।
5) यह सिद्धांत न्याय के संबंध में बाजार अर्थव्यवस्था को आदर्श मानता है । जिसके अनुसार सबके लिए समान नियम बना देने पर सभी मनुष्य अपने संबंधों को परस्पर न्याय पूर्ण ढंग से समायोजित कर लेंगे । अर्थात यह इस प्रक्रिया में सरकार के हस्तक्षेप की कोई जरूरत नहीं होती है ।
6) प्रक्रियात्मक न्याय के प्रमुख समर्थकों में हरबर्ट स्पेंसर ए एफ हेयक, मिल्टन, फ्रीडमैन और रोबर्ट नजिक हैं । जॉन रॉल्स ने भी अपने सिद्धांत को प्रक्रियात्मक न्याय माना है ।
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तात्विक न्याय
तात्विक न्याय का सिद्धांत प्रक्रियात्मक न्याय के विपरीत है । तात्विक न्याय यह मांग करता है कि न्याय से उचित उद्देश्य की पूर्ति होनी चाहिए । इसके लिए उसकी प्रक्रिया में आवश्यक समायोजन किया जा सकता है ।
तात्विक न्याय के समर्थकों का मानना है कि समाज के संपूर्ण सामाजिक संपदा उत्पादन के साधनों तथा लाभों का वितरण न्याय पूर्ण होना चाहिए । आर्थिक जीवन में खुली प्रतिस्पर्धा से विषमताओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है । इसलिए न्याय का मूल उद्देश्य इन्हीं सामाजिक आर्थिक विषमताओं को दूर करना है । इसके द्वारा उन व्यक्तियों या समूह के हितों की रक्षा के लिए आवश्यक प्रबंध करना होगा ताकि उनका आत्मविकास संभव हो सके ।
एक तरह से तात्विक न्याय सामाजिक न्याय की प्राप्ति करना चाहता है और सामाजिक न्याय की मांग यह है कि सामाजिक विकास के लाभ इन्हें गिने हाथों में सिमटकर ना रह जाए, बल्कि उन्हें समाज के अभावग्रस्त ही वंचित और कमजोर वर्गों तक पहुंचने पहुंचाने की व्यवस्था की जाए ।
तो दोस्तों यह था न्याय की संकल्पना के बारे में । साथ ही साथ इसमें हमने जाना न्याय की परिभाषा, उसका अर्थ, संकल्पना और विशेषताओं के बारे में । अगर आपको यह Post अच्छी लगी हो तो अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें तब तक के लिए धन्यवाद !!