प्लेटो के दार्शनिक राजा का अर्थ, विशेषताएं और आलोचना

Plato’s Philosopher King characteristics and Criticism

Hello दोस्तो ज्ञानउदय में आपका एक बार फिर स्वागत है और आज हम बात करते हैं, पश्चिमी राजनीति विचार के अंतर्गत प्लेटो के दार्शनिक राजा के बारे में । यानी कि प्लेटों के दार्शनिक राजा का सिद्धांत । (Plato’s Philosopher King in Hindi) इस Post में हम जानेंगे दार्शनिक राजा का अर्थ, इसकी विशेषताएं और इसकी आलोचनाओं के बारे में । तो चलिए शुरू करते हैं, आसान भाषा में ।

प्लेटो का जन्म एथेंस के एक कुलीन परिवार में हुआ था । प्लेटो को दर्शन शास्त्र और राजनीतिक चिंतन के प्रथम जनक के रूप में भी जाना जाता है । पश्चिम जगत में दार्शनिक पृष्ठभूमि बनाने में प्लेटो की महत्वपूर्ण भूमिका थी ।

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दार्शनिक राजा का अर्थ

प्लेटो के अनुसार कोई राज्य उस समय आदर्श राज्य का रूप लेता है, जब उसका शासन सर्वाधिक ज्ञानी और बुद्धिमान व्यक्तियों के द्वारा किया जाता है । इसे ही प्लेटो ने दार्शनिक राजा का शासन कहां है । दार्शनिक राजा के शासन का सिद्धांत प्लेटो द्वारा प्रतिपादित सर्वाधिक मौलिक सिद्धांत माना जाता है ।

दार्शनिक राजा की इस धारणा का प्रतिपादन करते हुए प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘Republic’ में यह महत्वपूर्ण कथन लिखा है कि-

“जब तक दार्शनिक राजा ना बन जाएं और राजाओं या युवराजों में दार्शनिक भावनाओं की यह शक्ति ना आ जाए । राजनीतिक महानता और बुद्धिमता एक व्यक्ति में ना मिल जाए, तब तक नगर राज्य बुराइयों से मुक्त नहीं हो सकते और ना ही जैसा कि मेरा विश्वास है, संपूर्ण मानव जाति को शांति प्राप्त हो सकती है ।”

इसका कारण बताते हुए प्लेटो ने कहा है कि तत्कालीन एथेंस के एक कुलीन वर्ग में पैदा होने के कारण संभवत प्लेटो को राजनीति में प्रवेश करने की इच्छा थी । लेकिन तत्कालीन राजनीतिक समाज की उसने जो बुराइयां देखी । उससे वह राजनीति से विमुख हो गया तथा इसकी बुराइयों को दूर करने पर विचार करने लगा । उसने राज्य के संरक्षक के बारे में विचार किया ।

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प्लेटो ने संरक्षक वर्ग में, दो वर्गों को शामिल किया है । जिसमें

पहला सैनिक वर्ग और

दूसरा दार्शनिक वर्ग ।

इस तरह प्लेटो के अनुसार सैनिक वर्ग में उत्साह और विवेक दोनों खूबियां को पाया जाता है । इसे सैनिक संरक्षक वर्ग भी कहा जाता है । जिसमें साहस होता है और यह सहायक संरक्षक की भूमिका निभाता है । लेकिन इसमें से कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिनमें उत्साह की अपेक्षा विवेक अधिक पाया जाता है । विवेक की प्रधानता से युक्त व्यक्तियों को दार्शनिक शासक बताया गया है । जिसे दार्शनिक संरक्षक भी कहा जाता है । यही वह मुख्य संरक्षक होते हैं, जो प्लेटो के अनुसार दार्शनिक राजा बनते हैं ।

प्लेटो विवेक को साहस और तृष्णा के गुणों से सर्वोच्च मानता है । प्लेटो ने विवेक के दो गुण बताएं हैं ।

पहला शासक को विवेकशील होना चाहिए और

दूसरा उसमें पर्याप्त प्रेम और स्नेह शीलता का गुण भी होना चाहिए ।

दार्शनिक शासक विवेकशील होने के साथ-साथ परिवार और संपत्ति के व्यक्तिगत स्वार्थ से मुक्त निस्वार्थ व्यक्ति है, जिसका लक्ष्य संपूर्ण समाज का हित व कल्याण करना होता है ।

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यह दार्शनिक शासित राज्य के हितों के साथ-साथ अपने हितों का पूर्ण तादात में स्थापित कर लेता है । वहीं राज्य के लोगों को एकता के सूत्र में बांधे रखता है तथा उसमें परस्पर स्नेह और सद्भाव दिखाता है । उसमें श्रेष्ठ आत्मा के सभी गुण होते हैं । वह मृत्यु से नहीं डरता तथा वह सच्चाई को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है ।

प्लेटो के अनुसार मनुष्य की चिंताओं और कष्टों का कारण है कि उसके मार्गदर्शक और नेता अज्ञानी होते हैं । जो जनता के दुखों को नहीं समझ सकते ।

प्लेटो के अनुसार राज्य रूपी नौका को चलाने के लिए, ज्ञानी, कुशल और निस्वार्थ नाविक की आवश्यकता होती है । जो शासन चलाने के योग्य हो । आकर्षणों से अविचलित रहे तथा वह जानता हो कि वास्तविक सुख क्या है और श्रेष्ठ जीवन का क्या तात्पर्य है । वह एक दार्शनिक व्यक्ति ही हो सकता है ।

इसी कारण प्लेटो राज्य सत्ता के शिखर पर दार्शनिक राजा को स्थापित करना चाहता है ।

दार्शनिक राजा की विशेषताएं

आईये अब प्लेटो की दार्शनिक राजा की विशेषताओं के बारे में जान लेते हैं । दार्शनिक राजा सर्वाधिक विवेक संपन्न, निस्वार्थ और कर्तव्य प्रणय होता है । राजा के हित में ही उसका हित होता है ।

प्लेटो के अनुसार दार्शनिक राजा पर नियमों, कानूनों का कोई बंधन नहीं होता । दार्शनिक शासक के कौन लोगों पर शासन करने की पूर्ण शक्ति प्राप्त होती है ।

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दार्शनिक राजा द्वारा बनाए गए नियम ही सर्वोच्च नियम और कानून होते हैं और दार्शनिक राजा को नियमों में बांधना राज्य के हित में नहीं होता है ।

प्लेटो ने दार्शनिक राजा को संविधान के मूल सिद्धांतों से अलग नहीं किया है । इस कारण वह दार्शनिक शासक से अपेक्षा करता है कि वह धन तथा आर्थिक विषमता को दूर करने का प्रयास करें ।

प्लेटो चाहता है कि राज्य का आकार बहुत अधिक बढ़ने ना दे । न्याय व्यवस्था का पालन सभी के द्वारा किया जाए और शिक्षा में कोई परिवर्तन ना किया जाए ।

इस तरह प्लेटो के दार्शनिक शासक को अपना जीवन भोग, विलास का नहीं, बल्कि त्याग और समर्पण का जीवन जीना चाहिए तथा वह सभी के हित में कार्य करने को प्रतिबद्ध होना चाहिए और वह कुशल नीतिज्ञ तथा न्याय प्रिय होना चाहिए ।

प्लेटो की दार्शनिक राजा की आलोचनाएं

आइए अब जान लेते हैं, प्लेटो के दार्शनिक राजा के शासन सिद्धांत की आलोचनाओं के बारे में । हालांकि दार्शनिक राजा के बारे में प्लेटो ने अनेक विशेषताएं बताई हैं, लेकिन ये आलोचनाओं से मुक्त नहीं है । निम्न कई आधारों पर इसकी आलोचना की जा सकती है ।

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दार्शनिक राजा के पास असीमित शक्तियां हैं, जिससे उसके निरंकुश होने का खतरा है और यह कथन सत्य है कि-

“सत्ता भ्रष्ट करती है और ऐसी मित्रता पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है ।”

प्लेटो के दार्शनिक राजा के पास संपूर्ण शक्ति आने से राज्य के नागरिकों के स्वतंत्रता व अधिकार सुरक्षित नहीं रह पाते हैं ।

प्लेटो के दार्शनिक राजा का सिद्धांत लोकतांत्रिक सिद्धांत की अवहेलना करता है ।

दार्शनिक राजा जीवन की वास्तविकताओं से परिचित ना होने के कारण असंतुलित और अकर्मण्य शासन का संदेश भी होता है ।

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सबसे प्रखर आलोचक पात्र के अनुसार

प्लेटो दार्शनिक शासन स्वयं हैं और रिपब्लिक उसके शासक बनाए जाने का दावा पात्र और सर्वोच्च और दार्शनिक शासक बनने के महत्वकांक्षा के कारण ही वह दार्शनिक शासन की अवधारणा का प्रतिपादन करता है ।

निष्कर्ष के रूप में कहा जाए तो प्लेटो की दार्शनिक राजा के सिद्धांत के रूप में शासन के कल्पना को वास्तविक रूप प्रदान करना बहुत ही कठिन है । अभी तक दुनिया में कहीं ऐसे शासक नहीं पाए जाते हैं ।

तो दोस्तो ये था प्लेटो के दार्शनिक राजा का सिद्धांत का अर्थ, विशेषताएं और आलोचनाओं के बारे में (Plato’s Philosopher King characteristics and Criticism) । अगर Post अच्छी लगी हो तो, अपने दोस्तो के साथ Share करें । तब तक के लिए धन्यवाद !!

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